कांधे पर मैला झोला लटकाए
अपने होंठों से कुछ बुदबुदाता हुआ
कभी इस सड़क...
कभी उस चौराहे
अक्सर मुझे वो दिखता है
कभी हँसता, कभी रोता
कभी देर तक मुस्कुराता हुआ
सड़क पर मलंग की भांति वो चलता जाता है
बडबडाता हुआ शायद वो
उपरवाले से कुछ कहता रहता है
सड़क के सहयात्रियों से न टोक-टाक
न ही झगडा
बस अपने में ही रहता है
भूख लगने पर
कूड़े की ढेर में फेंकी
जूठन से पेट भरता है
अक्सर मैंने उसके हांथों में
पापड़ बनी रोटियों को भी देखा है
लेकिन, एक दिन मैंने उसे
बालू के ढेर पर बैठे देख
अपने आप को झंझोरा है
क्योंकि...
मैंने उसे उस दिन
बालू फांकते देखा है...