चलो चलें
चलना ही नियति है
जीवन पर्यंत
चलो चलें
जहां मन को मिले शांति
और ‘तन’ हो जाए तृप्त
चलो चलें
आत्मा से परे
परब्रह्मांड के पार
नहीं है वहां कोई शापित
चलो चलें
जहां नहीं विचरते मनुष्य
शायद रहते हैं देवता
चलो चलें
इस जंगल से दूर
व्योम की गहराईयों में
जहां मिले हवा की शीतलता
चलो चलें
गिरिराज की कंदराओं में
होने निर्विकार
तन से विरक्त
और मन से आशक्त