Wednesday, September 29, 2010

इंसानियत

ईश्वर-अल्ला एक है
एक है नानक-मसीह

इंसानियत से बढ़कर
धर्म ना दूजा कोई

Saturday, April 24, 2010

तपती धरती... तपता मन

तप रहा है सूरज
तप रही है धरती

धरती के तपने से
तप रहे हैं लोग

अब तो समाज के तपने से
तपने लगा है मेरा मन !

Friday, April 9, 2010

गोदना

गोदना से होता था
औरतों का श्रृंगार
औरतें गुदवाती थी
इसे अपने बाजू , पैर
और कभी-कभी पूरे शरीर पर

पुरुषों का भी प्रिय
रहा है गोदना

पहले काले रंग का होता था ये
समय के साथ
इसने बदला है अपना रंग और रूप
रंग के साथ इसने नाम भी है बदला
टैटू का नाम तो अपने सुना ही होगा

Saturday, April 3, 2010

पानी

पहले हम लिखते थे
पानी की कलकल
और...
उसमे कलरव करते
पंछियों के बारे में

अब हम लिखते है
बोतल में बंद पानी के रहस्य
और ...
सुनामी रूपी सैलाब के बारे में

क्या पानी सिर्फ
हाहाकार मचाता रहेगा
या फिर...
पानी के लिए हाहाकार मचता रहेगा !

Tuesday, March 16, 2010

कलम का सौदा

कलम का कलाकार हूँ
लेकिन...
मेरी इस कलाकारी का
कभी-कभार सौदा हो जाता है

कलम के सौदागर
इस बाज़ार में भरे पड़े हैं
जो गाहे- बगाहे
ऐसी सौदेबाज़िया करते rahte हैं

आप कहेंगें
मैं कितना बेशर्म हूँ
लेकिन क्या करूँ
अपने और अपनों के लिए
बेशर्मी दिखानी पड़ती है...

Thursday, March 11, 2010

मुर्दाखोर!

शमशान सा सन्नाटा पसरा है
लाश लेने के लिए परिजन
अस्पताल में खड़े है
मोलभाव जारी है
यहाँ...
हैसियत के हिसाब से
कीमत तय होती है

शमशान घाट में भी
अस्पताल सरीखे...
पैसों के लिए
मुंह बाये खड़े रहते है
हैसियत से यहाँ भी हिसाब होता है

शायद ये कलयुग के मुर्दाखोर हैं
जो मरने के बाद भी
लाश की बोटी नोचने के लिए
तैयार बैठे रहते हैं...

Wednesday, February 17, 2010

पत्रकारिता का पेंच!


पत्रकार हूँ...
लिखता हूँ...
कभी लाल,नीले या भगवे के पक्ष में
तो कभी विपक्ष में लिखता हूँ
क्या करूँ...
मेरी कलम बंधी है!

इसमें मेरी व्यक्तिगत आकांक्षा हो सकती है
लेकिन इस वक्त तो एक अदद पगार के लिए बेबस हूँ
क्या करूं...
कलम तो मेरे ही हाथ में है
लेकिन इसमें स्याही कोई और डालता है

मैं जनहित में नहीं लिख सकता
क्योंकि मेरी कलम बंधी है
और इसे बांधा  है मेरी संस्था ने
शायद इस संस्था की अपनी कुछ आकांक्षा है
जो किसी के पानी पीने को भी सुर्खियाँ बनाती है

मुझे लगता है...
ये पत्रकारिता का पेंच है
जहाँ ...
कलम चलाता  कोई और है
और
उसे चलवाता कोई और है...

Tuesday, February 9, 2010

शिकायत!

लोगों को मुझसे शिकायत है
कि मैं गम नहीं
सिर्फ ख़ुशी बांटता हूँ
अब इस शिकायत का
मैं क्या ज़वाब दूँ ?

मैं कैसे लोगों को समझाउं
कि ये मैं किसी उद्येश्य के लिए नहीं
और न ही ये काम...
किसी लक्ष्य को साधने के लिए करता हूँ

मैं कैसे उन्हें समझाउं कि
ये तो शायद उपरवाले ने
मुझसे कहा है कि
तुम तो सिर्फ ख़ुशी बाँटने के लिए
पैदा हुए हो
गम बाँटने का काम तो
मैंने किसी और को दे रखा है

और इसी को उपरवाले की इक्षा समझ
मैं लोगों में गम नहीं
सिर्फ ख़ुशी बांटता हूँ
और इसी काम को
अपने जीवन की परम साधना समझता हूँ

इसीलिए शायद
लोगों को मुझसे शिकायत है
कि मैं गम नहीं
सिर्फ ख़ुशी बाँटता हूँ...

Tuesday, February 2, 2010

मैंने उसे बालू फांकते देखा है...

कांधे पर मैला झोला लटकाए
अपने होंठों से कुछ बुदबुदाता हुआ
कभी इस सड़क...
कभी उस चौराहे
अक्सर मुझे वो दिखता है

कभी हँसता, कभी रोता
कभी देर तक मुस्कुराता हुआ
सड़क पर मलंग की भांति वो चलता जाता है
बड़बड़ाता हुआ शायद वो
उपरवाले से कुछ कहता रहता है

सड़क के सहयात्रियों से न टोक-टाक
न ही झगड़ा
बस अपने में ही रहता है

भूख लगने पर
कूड़े की ढेर में फेंकी
जूठन से पेट भरता है

अक्सर मैंने उसके हांथों में
पापड़ बनी रोटियों को भी देखा है
लेकिन, एक दिन मैंने उसे
बालू के ढेर पर बैठे देख
अपने आप को झंझोरा है
क्योंकि...
मैंने उसे उस दिन
बालू फांकते देखा है...

Sunday, January 24, 2010

नीयति से नाता!

हार नहीं मानूंगा
तकरार करके रहूँगा
लडूंगा...
भिड़ूगा...
प्रतिकार करूँगा
अधिकारों के लिए
वार भी करूँगा
और...
घुटन भरी लम्बी जिंदगी के बदले
एक दिन की सम्मानित जिंदगी जीऊंगा
पर...
वर्तमान परिस्थिति को नीयति मानकर
चुप नहीं बैठूँगा
हार नहीं मानूंगा

Wednesday, January 13, 2010

इस शहर की शाम से परेशां सा हूं...

इस शहर की गलियों से अंजान सा हूँ
गली में लगी दुकानों को देख हैरान सा हूँ
आस पास भीड़ तो दिखती है मगर
इस भीड़ में गुमनाम सा हूँ
इस शहर की शाम से परेशां सा हूँ...

सड़कों पर मोटरगाड़ियों को देखता हूँ मगर
इन गाड़ियों में बैठे लोगों से अंजान सा हूँ
नज़रें ढूंढती है कि कोई अपना सा मिले
पर अपनों की खोज में हैरान सा हूँ
इस शहर की शाम से परेशां सा हूँ...

अब भूख लगी तो है
पर सोचता हूँ, जाऊ किधर
पांच सितारा होटल देख हैरान सा हूँ
शायद वहां पेट की भूख मिटती नहीं
इसलिए रोटी की खोज में थका सा हूँ
इस शहर की शाम से परेशां सा हूँ...

शाम गहरी हो रही है
सर छिपाने के लिए मैं जाऊ किधर
इस शहर में ऊँची इमारतें तो हैं
पर इन इमारतों में अपना मकान तो मिले
एक आशियाने की खोज में थका सा हूँ
आबोदाने की चाह में डरा सा हूँ
इस शहर की शाम से परेशां सा हूँ...

Tuesday, January 5, 2010

कलम की काली स्याही से ...

कलम की काली स्याही से
कुछ लिखने की कोशिश करता हूँ
पर न जाने क्यों मुझे
और मेरी कलम की काली स्याही को
सिर्फ और सिर्फ स्याह सच दिखता है

अपनी माँ की छाती से लिपटे
उस मासूम का चेहरा दिखता है
जिसकी माँ, उसके दूध के इंतजाम के लिए
लोगों के सामने हाथ पसारे खड़ी है

मुझे उस रिक्शे वाले का
हताश चेहरा दिखता है
जो अपना खून जलने की एवज में
चंद सिक्कों की चाहत रखता है

उस बेबस किसान का
चेहरा याद आता है
जो अपने सर पर हाथ रख
आसमान से दो बूँद की आस रखता है

उस मजदूर की हूक सुनाई पड़ती है
जो ठण्ड की रात में
अलाव के पास
फूटपाथ पर ही गमछा ओढ़े
और पेट में अपने घुटने साटाये सोया है


मुझे क्यों नहीं
बसंत की ठंडी बयार की रूमानियत
हसीं वादियों की खूबसूरती
फूलों पर मंडराते, भ्रमरों की गूँज
और आम के बगीचों में कोयल की
कूक सुनायी देती है

क्यों मुझे और मेरी कलम की
काली स्याही को...
सिर्फ और सिर्फ स्याह सच दिखाई देता है?

अब स्याह सच तो बहुत है
कितनों को गिनाऊ मैं
अगर काली स्याही से लिखता ही गया
तो एक दिन खुद को ही भूल जाऊंगा

मुझे अपने में आने दो
और खुद से ही सवाल करने दो
कि क्यों मुझे और मेरी कलम को
सिर्फ और सिर्फ स्याह सच दिखता है ।