Wednesday, February 17, 2010

पत्रकारिता का पेंच!


पत्रकार हूँ...
लिखता हूँ...
कभी लाल,नीले या भगवे के पक्ष में
तो कभी विपक्ष में लिखता हूँ
क्या करूँ...
मेरी कलम बंधी है!

इसमें मेरी व्यक्तिगत आकांक्षा हो सकती है
लेकिन इस वक्त तो एक अदद पगार के लिए बेबस हूँ
क्या करूं...
कलम तो मेरे ही हाथ में है
लेकिन इसमें स्याही कोई और डालता है

मैं जनहित में नहीं लिख सकता
क्योंकि मेरी कलम बंधी है
और इसे बांधा  है मेरी संस्था ने
शायद इस संस्था की अपनी कुछ आकांक्षा है
जो किसी के पानी पीने को भी सुर्खियाँ बनाती है

मुझे लगता है...
ये पत्रकारिता का पेंच है
जहाँ ...
कलम चलाता  कोई और है
और
उसे चलवाता कोई और है...

Tuesday, February 9, 2010

शिकायत!

लोगों को मुझसे शिकायत है
कि मैं गम नहीं
सिर्फ ख़ुशी बांटता हूँ
अब इस शिकायत का
मैं क्या ज़वाब दूँ ?

मैं कैसे लोगों को समझाउं
कि ये मैं किसी उद्येश्य के लिए नहीं
और न ही ये काम...
किसी लक्ष्य को साधने के लिए करता हूँ

मैं कैसे उन्हें समझाउं कि
ये तो शायद उपरवाले ने
मुझसे कहा है कि
तुम तो सिर्फ ख़ुशी बाँटने के लिए
पैदा हुए हो
गम बाँटने का काम तो
मैंने किसी और को दे रखा है

और इसी को उपरवाले की इक्षा समझ
मैं लोगों में गम नहीं
सिर्फ ख़ुशी बांटता हूँ
और इसी काम को
अपने जीवन की परम साधना समझता हूँ

इसीलिए शायद
लोगों को मुझसे शिकायत है
कि मैं गम नहीं
सिर्फ ख़ुशी बाँटता हूँ...

Tuesday, February 2, 2010

मैंने उसे बालू फांकते देखा है...

कांधे पर मैला झोला लटकाए
अपने होंठों से कुछ बुदबुदाता हुआ
कभी इस सड़क...
कभी उस चौराहे
अक्सर मुझे वो दिखता है

कभी हँसता, कभी रोता
कभी देर तक मुस्कुराता हुआ
सड़क पर मलंग की भांति वो चलता जाता है
बड़बड़ाता हुआ शायद वो
उपरवाले से कुछ कहता रहता है

सड़क के सहयात्रियों से न टोक-टाक
न ही झगड़ा
बस अपने में ही रहता है

भूख लगने पर
कूड़े की ढेर में फेंकी
जूठन से पेट भरता है

अक्सर मैंने उसके हांथों में
पापड़ बनी रोटियों को भी देखा है
लेकिन, एक दिन मैंने उसे
बालू के ढेर पर बैठे देख
अपने आप को झंझोरा है
क्योंकि...
मैंने उसे उस दिन
बालू फांकते देखा है...