Wednesday, January 13, 2010

इस शहर की शाम से परेशां सा हूं...

इस शहर की गलियों से अंजान सा हूँ
गली में लगी दुकानों को देख हैरान सा हूँ
आस पास भीड़ तो दिखती है मगर
इस भीड़ में गुमनाम सा हूँ
इस शहर की शाम से परेशां सा हूँ...

सड़कों पर मोटरगाड़ियों को देखता हूँ मगर
इन गाड़ियों में बैठे लोगों से अंजान सा हूँ
नज़रें ढूंढती है कि कोई अपना सा मिले
पर अपनों की खोज में हैरान सा हूँ
इस शहर की शाम से परेशां सा हूँ...

अब भूख लगी तो है
पर सोचता हूँ, जाऊ किधर
पांच सितारा होटल देख हैरान सा हूँ
शायद वहां पेट की भूख मिटती नहीं
इसलिए रोटी की खोज में थका सा हूँ
इस शहर की शाम से परेशां सा हूँ...

शाम गहरी हो रही है
सर छिपाने के लिए मैं जाऊ किधर
इस शहर में ऊँची इमारतें तो हैं
पर इन इमारतों में अपना मकान तो मिले
एक आशियाने की खोज में थका सा हूँ
आबोदाने की चाह में डरा सा हूँ
इस शहर की शाम से परेशां सा हूँ...

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