पत्रकार हूँ...
लिखता हूँ...
कभी लाल,नीले या भगवे के पक्ष में
तो कभी विपक्ष में लिखता हूँ
क्या करूँ...
मेरी कलम बंधी है!
इसमें मेरी व्यक्तिगत आकांक्षा हो सकती है
लेकिन इस वक्त तो एक अदद पगार के लिए बेबस हूँ
क्या करूं...
कलम तो मेरे ही हाथ में है
लेकिन इसमें स्याही कोई और डालता है
मैं जनहित में नहीं लिख सकता
क्योंकि मेरी कलम बंधी है
और इसे बांधा है मेरी संस्था ने
शायद इस संस्था की अपनी कुछ आकांक्षा है
जो किसी के पानी पीने को भी सुर्खियाँ बनाती है
मुझे लगता है...
ये पत्रकारिता का पेंच है
जहाँ ...
कलम चलाता कोई और है
और
उसे चलवाता कोई और है...
बहुत अच्छी कविता। इशारों-इशारों में ही सारी हकीकत को सामने रख दिया है। बधाई अमित।
ReplyDeleteBahut achhe se define kiya kalam aur patrakarita ko.......gooooood..
ReplyDelete